सुमन जैन ''सत्यगीता''
मैं और मेरा कृष्ण
अक्सर
मैं और मेरा कृष्ण
संवाद करते हैं
मुझसे कहता है मेरा कृष्ण
मैं प्रेम हूँ
जो बहता है भावना की समीर के साथ-साथ सीलन बनकर,
पुष्प में समाहित हूँ
इसकी सुगन्ध बनकर,
समंदर में तरंगायित हूँ लहर बनकर,
संगीत के सात सुर
मिलकर करते हैं मेरी प्राण प्रतिष्ठा
भक्त के कोमल हृदय की पुकार हूँ,
विरहणी का विरह गीत सुनने को सदैव लालायित
उसकी सूनी आंखों से
बहते हुए अश्रुओं से करता हूँ मैं आचमन..
लेकिन, तुम
आदमक़द मूर्तियों में
कैद कर मुझे
नानाभाँति के पकवानों से रिझाना चाहते हो ..
अपने मन का दीपक जलाए बगैर
करते हो आरती मेरी बार-बार..
काश कि
समझ पाते तुम
इस सत्य को
जहाँ करुणा नहीं,प्रेम नहीं,सम्वेदना नहीं
वहाँ मैं कैसे हो सकता हूँ ..!